आतंकवाद की ज़जिरें व शांति के फूल: नीलम महाजन सिंह

      By: Neelam Mahajan Singh 
#इन_दिनों राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित मेरा कश्मीर पर अति संवेदनशील लेख, आप की सेवा हेतु प्रस्तुत है ; 15.10.21 #नीलम_महाजन_सिंह जरूर पढ़ियेगा!
'ओह माई कश्मीर; जख्मों पर मरहम लगाने का समय':
~ नीलम महाजन सिंह ~
पिछले कुछ सप्ताह से कश्मीर में होने वाली गतिविधियों से मुझे बहुत दुख पहुंचा। 'कश्मीर की बेटी' तो हूं ही मैं ! मैंने कश्मीर के इतिहास का गहन अध्ययन किया है। कश्मीर की खूबसूरती और कश्मीर की संपन्नता की मैं गवाह हूं। परंतु पिछले दिनों में की गई हत्याओं से मेरे हृदय में गहरा जख्म पहुंचा है। ऐसे नहीं है कि कश्मीर में हुई अनगिनत मासूम हत्याओं का मुझ पर पहले प्रभाव नहीं पड़ा हो। सच तो यह है की झेलम नदी की गहराई और सुन्दरता में लाखों इंसानों का खून समाया हुआ है! साथ ही साथ हमारे वीर सैनिक सीआरपीएफ और सीआईएसएफ के जवानों की हत्या, आम नागरिकों की मृत्यु, छोटे-छोटे बच्चों की मृत्यु, इन सब से कश्मीर घाटी की अद्भुतता पर कुछ नज़र सी लग गई है। पिछले 30 वर्षों में कश्मीर में बहुत खून बहा है। लोग अंधकार में भी दीपक जलाते रहे। मेरा यह लेख राजनीतिक ना होकर काफी भावुक है। पहले तो मैंने कश्मीर के विषयों पर लिखना ही बंद कर दिया था। परंतु अब जबकि राजनीतिक गतिविधियां, केंद्र और राज्य के संबंधो में तनाव, राष्ट्रपति शासन, कश्मीर को यूनियन टेरिटरी बनाना, जम्मू-कश्मीर-लद्दाख-लेह को अलग करना और इन सब का सामूहिक प्रभाव, जो एक आम नागरिक पर पड़ा है, उसपर लिखना अनिवार्य है। हमारे वीर सैनिक लद्दाख की बर्फीली सीमाओं मे अपने प्राण दे रहे हैं।क्रास - बार्डर टैररिज़म में हमारे इतने सैनिक मारे गए। कश्मीर; पाकिस्तान के साथ सटी हुइ सीमा है। बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स सीआईएसएफ के जवान, जम्मू कश्मीर पुलिस, भारतीय आर्मी सभी कश्मीर को बचाने में लगे हैं। यह तो आवश्यक है। अनेकानेक घर बर्बाद हो गए हैं। अमीर खुसरो का शेर, 'गर फिरदौस बर रुह-ए-ज़मीं अस्त, हमीं अस्त हमीं अस्त हमीं अस्त' के ऊपर भी संदेह हो गया है। कश्मीर की सुंदर वादियां अब खाली-खाली सी लगती हैं। कहते हैं कि टूरिज्म में बढ़ोतरी हुई है। परंतु एक भय का माहौल कश्मीर घाटी में बना हुआ है। 1990 का आतंकवाद यदि घाटी में वापस आया तो वह  घातक सिद्ध हो सकता है। यह लेख लिखते-लिखते मेरे आंखों से आंसू गिर रहे हैं। कश्मीर के बारे में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिन्हें मैं एक रिस्पांसिबल सिटिज़न होने के नाते लिख नहीं सकती। कश्मीर में ऐसी कितनी घटनाएं मैंने अपनी आंखों से देखी हैं जिनमें कई घर, गांव, डिस्ट्रिक्ट बर्बाद हुए। आर्थिक संपन्नता से कश्मीर घाटी को पैसे-पैसे के लिए मोहताज होना पड़ता है। यह भी सच है कि आज कश्मीर में बेरोजगारी की समस्या बहुत अधिक है। व्यापार तथा 'आत्म-नर्भरता' आर्थिक कार्य करना कठिन प्रतीत हो रहा है। कश्मीर के जम्मू-कश्मीर-लद्दाख के विभाजनोपरांत जम्मू-लद्दाख पर बहुत आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ा है। फिर क्या कारण है कि जब कश्मीर एक बार फिर कठिनाइयों से गुज़र रहा है तो किसी सिरफिरे आतंकी ने मासूम गैर-राजनीतिक मध्यमवर्गीय या गरीब लोगों की हत्या करना आरंभ कर दिया। ऐसा क्या संदेश देना चाहते थे जो कि वे शांतिपूर्वक तरीके को नहीं अपना पाये ? 1947 से लेकर अभी तक, 75 वर्षों के उपरांत भी कश्मीर में शांति बहाल क्यों नहीं हो रही है? । कश्मीर में 'आर्म्ड 'फोर्सिज़ स्पेशल पावर्स एक्ट' (AFSPA) लागू है। कश्मीर में अति आवश्यक है, कि एक पॉपुलर सरकार का गठन हो और मुख्यमंत्री द्वारा कश्मीर के प्रशासन को चलाया जाए । कश्मीर का 'जनता दरबार' जो कि महाराजा हरि सिंह की देन थी, अब नहीं लग रहा है। वैसे तो प्रशासनिक व्यवस्था को ही जनता दरबार कहा जाता था। कश्मीर में हिंसा व धार्मिक असहिष्णुता का ज़हर फिर से फैल रहा है। इसे हिंदू -मुसलमान का रूप नहीं देना चाहिए। हत्या चाहे हिंदू की हो, मुसलमान, सिख या इसाई की हो, पंडितों की हो या इमामो की हो, ग्रंथियों की हो या पादरियों की हो, हर प्रकार की हत्या की कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए । कश्मीर को शांतिपूर्ण वातावरण की आवश्यकता है। कश्मीर को आवश्यकता है एक सुचारू प्रशासन की, कश्मीर को आवश्यकता है स्कूलों, कॉलेजों के खुलने की! नौजवानों को रोज़गर प्रदान करना एक महत्वपूर्ण चुनौती है। कश्मीर की समस्याएं भारत के अन्य राज्यों से विभिन्न हैं। यह प्रश्न भी किया जा रहा है कि क्या कश्मीर घाटी में 1990 के दशक का आतंकवाद फिर से सिर उठा रहा है? ऐसा कभी ना हो यह मेरी प्रार्थना है! कश्मीर घाटी में बहुत खून बहा है। कश्मीर पर लिखे मेरी कई लेखों में मैंने बार-बार यह लिखा है कि जब हम यह कहते हैं कि कश्मीर हिंदुस्तान का मुकुट है और कश्मीर हिंदुस्तान का अभिन्न अंग है तो क्या केवल कश्मीर की भूमि ही भारत का हिस्सा है? यदि हम कश्मीर को अपना मानते हैं तो कश्मीर के लोगों भी हमारे अपने हैं। फिर ऐसा क्यों है कि कश्मीर घाटी में रहने वाले लोग अपने को केंद्र के मुख्य सूत्रधार से समन्वय नहीं रख पाये? पिछले दिनों कश्मीर में 'टारगेटिड किलिंग्स' के द्वारा हिंदुओं को मारा गया, जिसमें की एक स्कूल टीचर, गोलगप्पा बेचने वाला एक मज़दूर, एक टैक्सी ड्राइवर थे और एक केमिस्ट थे। हमारे  सेना के जवानों को मृत्यु के घाट उतार दिया गया। कश्मीर में लेफ्टिनेंट गवर्नर का शासन है। साथ ही साथ चुनाव ना होने की वजह से कोई पॉपुलर सरकार नहीं है । घाटी को चलाने का पूर्ण दायित्व उप-राज्यपाल पर है। कश्मीर घाटी में राष्ट्रपति शासन लगे हुये एक साल से अधिक का समय हो गया है। वैसे संवैधानिक रूप से भी यह माना जाता है कि राष्ट्रपति शासन को कम से कम समय के लिए लगाया जाना चाहिए। अनुच्छेद 370 और 35-A हटाने के बाद, कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को नज़रबंद कर गिरफ्तार कर लिया गया था। फिर उन्हें लगभग सवा-वर्ष के बाद छोड़ा गया। कश्मीर में पंडितों और सिखों की हत्या से खौफ़ पसर गया है। कई परिवार घाटी से पलायन कर रहे हैं। सरकार के 'न्यू कश्मीर' के आह्वान पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है। 1990 में घाटी में चरमपंथ बढ़ने के बाद केवल 800 कश्मीरी पंडितों के परिवार ही ऐसे थे, जिन्होंने यहां से न जाने का फ़ैसला किया। कश्मीर में मारे गए अल्पसंख्यकों के प्रियजन कह रहे हैं- "हम कश्मीरी, यहाँ से नहीं जाएँगे"! समीक्षार्थ यह कहना उचित होगा कि कश्मीरीयत, इंसानियत और जमहुरियत को कश्मीर घाटी में वास्तविक स्वरूप प्रदान किया जाए। हमें भारत के मुकुट को शांति व समृद्धिदायक बनाने का प्रयास करना होगा। हिंसात्मक रक्तपात ने गहरे ज़ख्म दिये हैं। समय आ गया है कि संवेदनशीलता से जख्मों पर मरहम लगाएं। ओ माई कश्मीर!
~नीलम महाजन सिंह~
(वरिष्ठ पत्रकार, विचारक, राजनैतिक समीक्षक, पूर्व दूरदर्शन समाचार संपादक, मानवाधिकार संरक्षण अधिवक्ता व लोकोपकारक)
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